इस्लाम में बेवा औरतों की इज़्ज़त।

जिन लोगों ने इस्लामी तारीख़ पढ़ी है वो हज़रत अस्मा-बिन्ते-उमेस को बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि इनका निकाह हज़रत जाफ़र-बिन-अबू-तालिब से हुआ था, जंगे-मौता में जब हज़रत जाफ़र शहीद हो गए तो उन्हें हालात के रहमो-करम पर नहीं छोड़ दिया गया कि उम्र भर बैठी सोग ही मनाती रहें और अपनी ज़िन्दगी को हलकान करती रहें। ख़लीफ़ाए-हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) आगे बढ़ते हैं और उस पाकबाज़ ख़ातून को बा-इज़्ज़त तरीक़े से निकाह का पैग़ाम पहुँचाते हैं, जिसे उतनी ही इज़्ज़त के साथ हज़रत अस्मा क़बूल कर लेती हैं। इस तरह हज़रत अस्मा को शौहर का और बच्चों को बाप का प्यार नसीब हो गया। फिर जब हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ का भी इन्तिक़ाल हो गया तो हज़रत अस्मा ने उन्हें ख़ुद अपने हाथों से ग़ुस्ल दिया और सब्र का मुज़ाहिरा किया। हमारे समाज में तो दो बार की बेवा ख़ातून को इस क़द्र तानों का सामना करना पड़ता कि शायद वो ख़ुद ही ज़िन्दगी की जंग हार जाती,लेकिन इस बार शेरे-ख़ुदा हज़रत अली (रज़ि०), जो कि हज़रत जाफ़र के छोटे भाई भी होते हैं, सामने आते हैं और हज़रत अस्मा का हाथ थामते हैं और बच्चों को बाप की मुहब्बत से महरूम नहीं होने देते हैं। 
ये है इस्लामी समाज जिसमें एक औरत की इज़्ज़त किसी इज़्ज़तदार मर्द से कहीं ज़्यादा ही है कम नहीं है। 
इसी तरह एक दूसरी ख़ातून सहाबिया की मिसाल ले लें। ये हैं हज़रत आतिका (रज़ि०) जो कि एक-बाद- तीन शहीदों की बीवी होने का शर्फ़ रखती हैं। इन्हें भी इस्लामी मुआशरे ने हालात के थपेड़े खाने के लिये तनहा नहीं छोड़ दिया था,हज़रत आतिका का पहला निकाह हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अबू-बक्र से हुआ था, इन दोनों में बेमिसाल महब्बत पाई जाती थी। इतनी महब्बत कि एक दिन हज़रत अब्दुल्लाह ने हज़रत आतिका से ये अहद तक ले लिया था कि अगर मेरा इन्तिक़ाल हो जाए तो तुम किसी से निकाह न करना, जब हज़रत अब्दुल्लाह कुछ दिन बाद शहीद हो गए तो उस अहद की बुनियाद पर उन्होंने दूसरा निकाह न करने का ही फ़ैसला किया, लेकिन मुस्लिम मुआशरा इस बात के लिये आमादा नहीं था कि समाज में किसी औरत को यूँ ही अकेले नफ़्सियाती जंग लड़ने के लिये छोड़ दिया जाए। उन्हें इस बात के लिये आमादा किया कि वो निकाह करें और ख़ुद ख़लीफ़ए-सानी हज़रत उमर ने ये पेशकश की कि वो उनसे निकाह के लिये तैयार हैं, और ये निकाह कराया गया। उसके बाद जब हज़रत उमर (रज़ि०) को भी शहीद कर दिया गया तो मशहूर सहाबी हज़रत ज़ुबैर-बिन-अवाम ने हज़रत आतिका को निकाह का पैग़ाम पहुँचाया जिसको उन्होंने बख़ुशी क़बूल कर लिया। कुछ दिन के बाद हज़रत ज़ुबैर भी शहीद हो गए। 
ये आइडियल इस्लामी समाज की महज़ एक झलक है

वरना ऐसी सिर्फ़ दो नहीं बल्कि सैंकड़ों मिसालें मौजूद हैं जिनसे मालूम होता है कि इस्लाम ने बेवा ख़ातून की भी इज़्ज़त और वक़ार को उसी तरह मक़ाम दिया है जिस तरह मर्द की इज़्ज़त को दिया जाता है। यक़ीनन उस इस्लामी समाज का हमारे आज के इस समाज से कोई मुक़ाबला ही नहीं है जिसमें हज़ारों की तादाद में कुँवारी बेटियाँ बिन-ब्याही बैठी हैं सिर्फ़ इस वजह से कि उनके पास देने के लिये जहेज़ नहीं है।

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